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Sunday, 22 September 2013

मेरा घर ही मुझको अपना कहने से कतराता है

कहाँ गए वो कोयल तोते , कहाँ गई वो गौरैया । 
कहाँ गया पनघट का पानी , कहाँ गयी वो शीतलता ॥ 

      पाने को तो जग सारा  था, पर पा ना सका में घर प्यारा।
      मित्र विरादर दूर हुए सब, दोष मरदे मुझपे सारा ॥ 

में पथ का बस बंजारा था, बात नहीं मुझको आती। 
रुक-रुक कर बस आगे बढ़ता ,छू-छू  कर घर की माटी ॥ 

       जग-जग कर हैं   रातें काटी, ताप-ताप  कर  कट काटा योवन । 
       दूर मंजूरी कर-कर  मैंने, काटा है अपना जीवन ॥ 

लौटन की आस को में, सारी नींद गवा बैठा । 
पड़े किनारे सड़को के में, लिखा रहा जीवन रेखा ॥ 

        बात अजब यह सपनों की थी, सपनों के थे पंख बड़े। 
        सपनों की चादर ओडेय़, रहा में चलता तिमिर तले ॥ 

आज दोबारा जब लौटा हूँ , देखा मैने क्या पाया । 
माटी ना स्वीकारे मुझको, अनजान बनी अपनी छाया ॥ 

        रह-रह के पहचान बनता ,सोच के मन घबराता है । 
        मेरा घर ही मुझको अपना कहने से कतराता है ॥ 

निमिष चन्दोला