कहाँ गए वो कोयल तोते , कहाँ गई वो गौरैया ।
कहाँ गया पनघट का पानी , कहाँ गयी वो शीतलता ॥
पाने को तो जग सारा था, पर पा ना सका में घर प्यारा।
मित्र विरादर दूर हुए सब, दोष मरदे मुझपे सारा ॥
में पथ का बस बंजारा था, बात नहीं मुझको आती।
रुक-रुक कर बस आगे बढ़ता ,छू-छू कर घर की माटी ॥
जग-जग कर हैं रातें काटी, ताप-ताप कर कट काटा योवन ।
दूर मंजूरी कर-कर मैंने, काटा है अपना जीवन ॥
लौटन की आस को में, सारी नींद गवा बैठा ।
पड़े किनारे सड़को के में, लिखा रहा जीवन रेखा ॥
बात अजब यह सपनों की थी, सपनों के थे पंख बड़े।
सपनों की चादर ओडेय़, रहा में चलता तिमिर तले ॥
आज दोबारा जब लौटा हूँ , देखा मैने क्या पाया ।
माटी ना स्वीकारे मुझको, अनजान बनी अपनी छाया ॥
रह-रह के पहचान बनता ,सोच के मन घबराता है ।
मेरा घर ही मुझको अपना कहने से कतराता है ॥
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