Monday, 23 September 2013

बिचोलियों की व्यवस्था

दलालों  के दल -दल में ,महंगाई की हलचल है ।
मेहनत क़र उपजाने वाले क़े, घर में गरीबी हर पल हैं ॥ 
बैठ खाट में बने महाजन ,हेर -फेर कर खाते हें । 
भरी तिजोरी नोटों की ,सेठानी संग इठ्लातें हैं ॥ 

नेता बने उनके भी स्वामी ,बाट का कोई हिसाब नहीं । 
लगे चलाने लूट की चक्की, मेह्नत की कोई बात नहीं ॥
चले दरोगा लूटन को ,अब चोर पुरानी बात हु । 
खाकी रंग का अपना हिस्सा ,पहले से हिसाब में ही ॥ 

अफसर अपनी अफसर शाही, ठेके में दिखता है । 
दस प्रतिशत का उसका हिस्सा, अब ईमानदारी में आता है ॥ 
पत्रकार बन देते धमकी ,अपना कट ले जाते हैं । 
जात-पात के  दंगो में, भूके मानुष ही मारे जाते हैं ॥ 

बने सिपाही दर्जे के, देश के खातिर मरते हैं । 
उनके उप्पर बैठे अफसर, दल्लों से वादा करते हैं ॥ 
सबको अपने हिस्से की चिंता , रात और दिन सताती है । 
कितना खा ले चोर बाजारी, मन की भूख न मिट पाती है ॥ 

 मौत लगाई गले उन्होने , जो बोवन को बीज चले । 
बड़ी कीमतें पल -पल में , कहाँ बटे किसके हिस्से॥ 
दूध मलाई खता था वो, अब रोटी कपडा बना उसका सपना ।  
पूंजीवादी सोच के आगे, तबाह हुआ उसका अपना ॥ 

बड़ा प्रतिशत दल्लों का, कारीगरों का अब निशान नहीं । 
उत्पादन करने से बेहतर, बिचोलियो का काम सही ॥ 
कहाँ थमेगी महंगाई, जब उत्पादन पे बोझ बड़े । 
पूंजीवादी व्यवस्था में ,भक्षक से बिचोलिये खडे ॥ 

(निमिष)

No comments:

Post a Comment