दलालों के दल -दल में ,महंगाई की हलचल है ।
मेहनत क़र उपजाने वाले क़े, घर में गरीबी हर पल हैं ॥
बैठ खाट में बने महाजन ,हेर -फेर कर खाते हें ।
भरी तिजोरी नोटों की ,सेठानी संग इठ्लातें हैं ॥
नेता बने उनके भी स्वामी ,बाट का कोई हिसाब नहीं ।
लगे चलाने लूट की चक्की, मेह्नत की कोई बात नहीं ॥
चले दरोगा लूटन को ,अब चोर पुरानी बात हुई ।
खाकी रंग का अपना हिस्सा ,पहले से हिसाब में ही ॥
अफसर अपनी अफसर शाही, ठेके में दिखता है ।
दस प्रतिशत का उसका हिस्सा, अब ईमानदारी में आता है ॥
पत्रकार बन देते धमकी ,अपना कट ले जाते हैं ।
जात-पात के दंगो में, भूके मानुष ही मारे जाते हैं ॥
बने सिपाही दर्जे के, देश के खातिर मरते हैं ।
उनके उप्पर बैठे अफसर, दल्लों से वादा करते हैं ॥
सबको अपने हिस्से की चिंता , रात और दिन सताती है ।
कितना खा ले चोर बाजारी, मन की भूख न मिट पाती है ॥
मौत लगाई गले उन्होने , जो बोवन को बीज चले ।
बड़ी कीमतें पल -पल में , कहाँ बटे किसके हिस्से॥
दूध मलाई खता था वो, अब रोटी कपडा बना उसका सपना ।
पूंजीवादी सोच के आगे, तबाह हुआ उसका अपना ॥
बड़ा प्रतिशत दल्लों का, कारीगरों का अब निशान नहीं ।
उत्पादन करने से बेहतर, बिचोलियो का काम सही ॥
कहाँ थमेगी महंगाई, जब उत्पादन पे बोझ बड़े ।
पूंजीवादी व्यवस्था में ,भक्षक से बिचोलिये खडे ॥
(निमिष)